तब मेरा बेटा साढ़े सात का था. मैंने उसकी एक गलती पर उसे एक थप्पड़ मार दिया, जो कि कुछ अधिक जोर का पड़ गया. नाजुक से गाल पर उँगलियों के छापे पड़ गए. बाद में मुझे भी दुःख हुआ, किन्तु उस छापे का थप्पड़ का नहीं.. लेकिन वो बात ये नहीं जो मैं कहना चाह रही हूँ, दरअसल बात ये है कि उस वक़्त मेरी सासू माँ वहीँ थीं और मेरे थप्पड़ पर एकदम से आक्रोश में भर कर, अमूमन शांत रहने ममतामयी माँ ने, टोकरी भर बातें सुना दिन. मैंने चुपचाप सुन ली. मेरा चुपचाप सुन जाना भी उन्हें अखर गया. वो चाहती थीं मैं भी बोलूं लेकिन मैं तो शांतिप्रिय देश की निवासी ठहरी, चुप ही रही.
उन्होंने जो भी कहा था उस वक़्त, उसका लब्बोलुआब ये था...
· एक छोटी सी गलती के लिए बच्चे को मारना उचित है क्या ?
· अभी इसकी उम्र क्या है, जब बड़ा होगा समझ जायेगा?
· एक तुम ही हो, जिसने बच्चा जना है और पाल रही हो? हमने अपने बच्चे को नहीं पाला?
· कोई बता दे कि हमने कभी अपने बच्चों को ऊँगली से भी छुआ हो? आदि आदि...
बाद में मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि माँ अभी ऐसा वक़्त है कि मैं इनकी सिर्फ माँ ही नहीं शिक्षक और पिता भी हूँ. परिस्थितियां ही ऐसी थीं. नहीं मानना था, नहीं मानीं. चार दिनों तक रुष्ट ही रहीं. मैं परेशान होती रही कि इन्हें कैसे समझाऊं. बाद में काफी सोचा उनकी बातों पर, उनकी प्रतिक्रिया पर.... फिर मुझे न तो वो गलत लगीं ना ही मैं. मैं समझ गयी वो अपने स्थान पर सही हैं, उन्होंने अपने बच्चों पर हाथ उठाने की आवश्यता नहीं पड़ी क्योंकि हमारी-उनकी जिम्मेदारियों के विस्तार का अंतर है. छोटे बच्चों को खाना खिलाना, नहलाना और कपड़े आदि धुलना ही उनकी जिम्म्मेदारियों का विस्तार था. जब बच्चे पांच के ऊपर हुए तो वो जिम्मेदारियां कुछ कम होने लगीं....क्योंकि आंचल की छाँव के साथ-साथ व्यक्ति-समाज-देश-दुनिया की समझ के लिए शिक्षा और संस्कार की आवश्कता ने बच्चों को पहले दालान-बगीचा-खेत-स्कूल-कॉलेज तक पहुंचा दिया...जिसमें घर का चौखट कहीं पीछे रह गया और बच्चे क्रमशः गाँव के सीवान से होते हुए जिला-शहर-राज्य और कभी-कभी विदेश तक पहुँच गए.... लेकिन इन सबके बीच माँ अपनी चौहद्दी में ही रह गयी, जो कि उस घर के चाहरदीवारी के अन्दर-बाहर जाने के लिए एकमात्र उस बड़े दरवाजे तक आकर रूक जाती थी.
जब बच्चे पढ़ने के लिए शहर जाते तो चौखट पर खड़ी झांकती माँ, एक हाथ चौखट पर और दूसरा दरवाज़े को पकडे देखती, रहती उस आखिरी छोर तक, जहाँ से रास्ता मुड़ जाता. पीछे रह जाती दांतों में पल्लू दबाये, आधा ढंका और आधा खुला चेहरा लिए माँ, जिसकी नज़र उस आखिरी छोर तक पहुँचती-पहुँचती आंसूओं से डबडबाई आँखें धुंधला जातीं... कुछ पल वहीँ ठिठकी माँ जब खाली मन से मुड़ती तो उसकी आँखों में उनके आने का इंतजार शुरू हो चुका होता...
समय की अपनी गति, कौन रोक पाया है भला...क्रमशः...