Sunday 12 May 2019

माँ


तब मेरा बेटा साढ़े सात का था. मैंने उसकी एक गलती पर उसे एक थप्पड़ मार दिया, जो कि कुछ अधिक जोर का पड़ गया. नाजुक से गाल पर उँगलियों के छापे पड़ गए. बाद में मुझे भी दुःख हुआ, किन्तु उस छापे का थप्पड़ का नहीं.. लेकिन वो बात ये नहीं जो मैं कहना चाह रही हूँ, दरअसल बात ये है कि उस वक़्त मेरी सासू माँ वहीँ थीं और मेरे थप्पड़ पर एकदम से आक्रोश में भर कर, अमूमन शांत रहने ममतामयी माँ ने, टोकरी भर बातें सुना दिन. मैंने चुपचाप सुन ली. मेरा चुपचाप सुन जाना भी उन्हें अखर गया. वो चाहती थीं मैं भी बोलूं लेकिन मैं तो शांतिप्रिय देश की निवासी ठहरी, चुप ही रही.
उन्होंने जो भी कहा था उस वक़्त, उसका लब्बोलुआब ये था...
·       एक छोटी सी गलती के लिए बच्चे को मारना उचित है क्या ?
·       अभी इसकी उम्र क्या है, जब बड़ा होगा समझ जायेगा?
·       एक तुम ही हो, जिसने बच्चा जना है और पाल रही हो? हमने अपने बच्चे को नहीं पाला?
·       कोई बता दे कि हमने कभी अपने बच्चों को ऊँगली से भी छुआ हो? आदि आदि...
बाद में मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि माँ अभी ऐसा वक़्त है कि मैं इनकी सिर्फ माँ ही नहीं शिक्षक और पिता भी हूँ. परिस्थितियां ही ऐसी थीं. नहीं मानना था, नहीं मानीं. चार दिनों तक रुष्ट ही रहीं. मैं परेशान होती रही कि इन्हें कैसे समझाऊं. बाद में काफी सोचा उनकी बातों पर, उनकी प्रतिक्रिया पर.... फिर मुझे न तो वो गलत लगीं ना ही मैं. मैं समझ गयी वो अपने स्थान पर सही हैं, उन्होंने अपने बच्चों पर हाथ उठाने की आवश्यता नहीं पड़ी क्योंकि हमारी-उनकी जिम्मेदारियों के विस्तार का अंतर है. छोटे बच्चों को खाना खिलाना, नहलाना और कपड़े आदि धुलना ही उनकी जिम्म्मेदारियों का विस्तार था. जब बच्चे पांच के ऊपर हुए तो वो जिम्मेदारियां कुछ कम होने लगीं....क्योंकि आंचल की छाँव के साथ-साथ व्यक्ति-समाज-देश-दुनिया की समझ के लिए शिक्षा और संस्कार की आवश्कता ने बच्चों को पहले दालान-बगीचा-खेत-स्कूल-कॉलेज तक पहुंचा दिया...जिसमें घर का चौखट कहीं पीछे रह गया और बच्चे क्रमशः गाँव के सीवान से होते हुए जिला-शहर-राज्य और कभी-कभी विदेश तक पहुँच गए.... लेकिन इन सबके बीच माँ अपनी चौहद्दी में ही रह गयी, जो कि उस घर के चाहरदीवारी के अन्दर-बाहर जाने के लिए एकमात्र उस बड़े दरवाजे तक आकर रूक जाती थी.
जब बच्चे पढ़ने के लिए शहर जाते तो चौखट पर खड़ी झांकती माँ, एक हाथ चौखट पर और दूसरा दरवाज़े को पकडे देखती, रहती उस आखिरी छोर तक, जहाँ से रास्ता मुड़ जाता. पीछे रह जाती दांतों में पल्लू दबाये, आधा ढंका और आधा खुला चेहरा लिए माँ, जिसकी नज़र उस आखिरी छोर तक पहुँचती-पहुँचती आंसूओं से डबडबाई आँखें धुंधला जातीं... कुछ पल वहीँ ठिठकी माँ जब खाली मन से मुड़ती तो उसकी आँखों में उनके आने का इंतजार शुरू हो चुका होता...
समय की अपनी गति, कौन रोक पाया है भला...क्रमशः...

Friday 26 October 2018

माँ


माँ
ओ प्यारी माँ !
बड़ी भोली है तू ,
सदियों से सौंपती आई है खुद को विरासत के रूप में ,
अपनी अगली पीढ़ी को ,
आज हम दफ़न करते हैं तेरी विरासत,
....ससम्मान !
क्षमा करना माँ,
तेरी सीख, तेरी मिशाल, नहीं दे सकते हम
अपनी अगली पीढ़ी को !
नहीं गुनगुना सकते ख़ामोशी के गीत
नीची नजरों के घाव गहरे हो गए हैं
नहीं सह सकते अब,
लिजलिजी विचारों और बजबजाती नज़रों के भिनभिनाहट को
इनको ताड़ना भी हमारी ही ताड़ना है....
हम बगावत करते हैं आज
तेरी संस्कारों से, तेरे जैसे अस्तित्व से
तेरे क़त्ल का सामान तेरे गहने बन गए
तू तेरी ही विशालता में विलीन कर दी गयी
शून्य में समा गयी शून्य छोड़ कर....!

अनुशरण की गति भी कोई गति है माँ,
एक पिंजरा है ये
और पिंजरे की गति कैसी..?
तेरी अग्नि परीक्षा भी तेरे काम न आई
तेरे सम्पूर्ण त्याग और समर्पण का प्रत्युत्तर था--एक वार !
जो तेरी पीठ पर हुआ – धोखे और निर्वासन का !
फिर भी तूने दिया ही,
और समा गयी धरती में – निःशब्द !
छोड़ कर एक चिर-प्रश्न !

छद्म-भोर और छद्म-भेष का भ्रम दोनों का
छले गए दोनों ही, साक्षी पूरी सृष्टि
फिर शिला बन सजा तूने क्यों पाई ?
दंड का अधिकारी था वो,
जिसे तेरी रक्षा का अहंकार था, या फिर वो ,
जिसने अपराध किया था....
ज्ञात है, तू अब भी निःशब्द है !
वर्जनाओं ने लील लिया है तेरे शब्दों को, तेरी आवाज़ को !
वर्जनाओं की दीवार विरासत है तेरी
कोई कमी ना रखी तूने भी उसे और ऊँचा करने में,
पर माँ, वर्जनाओं का आदर्श और उनका अनुपालन तो समान होना चाहिए न..?

इसलिए माँ, आज त्यागते हैं ये पिंजरा भी,
अब अपनी गति होगी हमारी
अपना लय होगा,
सहर्ष आमंत्रित हैं वो जो सहयात्री बनना चाहें..
हम स्वयं लेंगे अपनी धरती की गहराई और
अपने आकाश के असीमता की थाह !
और सीचेंगे इन्हीं से अपनी जड़ों को भी,
इंसान इंसान के बीच का भेद ना होगा तब,
देह की दुनिया से परे जीना सीखाएँगे हम—अपनी अगली पीढ़ी को !

गाँव की बहुएं


गाँव की बहुएं -1
गर्मी की तपती दोपहरी
महुए की मीठी और तेज़ गंध
अकुलाहट भरती गंध की तीव्रता
और फिर वो खोजने लगतीं हैं
अपने फैलते-सिकुड़ते नथुने के लिए
एक कोना !
घर की चारदीवारी में फंसी बहुएं
कभी मुंह अँधेरे, तो कभी सांझ ढले
ले आतीं हैं छत पर से
फेफड़ा भर साँसें !
और उसी ताज़गी के भरोसे
तैयार हो जातीं हैं फेटा मार के
एक और दिन गुजार देने के लिए !

छोटी सी दुनिया, लम्बी सी ज़िन्दगी !
आँगन से सीढ़ी, सीढ़ी से छत !
छत से सीढ़ी, सीढ़ी से आँगन !
.........और एक ज़िन्दगी !
हासिल बैंड-बाजे वाली शव-यात्रा !

2.
गाँव की बहुएं
जन्म लेती हैं जहाँ, जिस घर में
रखा जाता है उन्हें, फूलों की तरह संभाल के
और अपने ही घर में
बसर करती हैं जिंदगी मेहमानों जैसी
फिर विदाई पुरे दुलार-प्यार की !

हर सांस, हर कौर के साथ
संस्कारित होती हैं
लड़की होने के गुणों से
तपाया जाता है उन्हें सोने सा
कि, कुंदन बन चमकाना है
उन्हें अपने ससुराल को !

और तैयार की जाती हैं
अस्थि-मज्जा-मांस से बनी पुतलियाँ !
पुतलियाँ ! हाँ पुतलियाँ !
रीढ़-विहीन पुतलियाँ !
सिर्फ एक लोथ पुतलियाँ !
किसी भी खाँचें में ढल-फैल जाने वाली पुतलियाँ !

सपनों की रंगीन बिंदी माथे पर सजाये
भेज दी जाती हैं – अपने घर !
अपना घर ? आगंतुकों का अपना घर !
जो कभी नहीं होता अपना
पर अपनाने की पूरी कीमत वसूलते हैं
बदन के रोयें-रोयें से !

होती हैं बस उपजाऊ ज़मीन भर
जहाँ फसलें बोयी, उगाई और काटी भर जाती हैं
खाद-पानी उतना ही कि उर्वरता बनी रहे !

तरसती रहें जीवन भर, भले ही एक नथ को
पर उनके शैय्या-दान पर, बड़े सम्मान से
सोने की जंजीर चढ़ा दी जाती है !
उम्र गुजार देती हैं कथरी पर
भूमि-शयन करते-करते,
पर स्वर्ग में सुख से सोने को
एक अदद रानी-पलंग साथ अवश्य ले जाती हैं !

कसकती रह जाती हैं उम्र भर
एक कजरी तक न गा पातीं हैं,
लेकिन तन से साँसों के निकलते ही
बैंड-बाजे के ढमा-ढम से
पूरा गाँव हिला जातीं हैं !

3.
बड़ा भेद होता है, बहुओं बहुओं में भी
कुछ बहुएं होती है दीवारों के बीच
भटकती आत्मा सी,
कुछ होतीं हैं खुले आसमानों में
चौहद्दियां नापतीं !

अब सवालों में आता है
कौन अगड़ा और कौन पिछड़ा ?
वो जिनके सर पर गट्ठर
पीठ पर बंधे होते हैं बच्चे
और कमर में खुंसा होता है एक हंसुआ !
कदम-दर-कदम सीमाओं को लांघती
नहीं पालतीं कमतर होने का एहसास भी
और खींच लेतीं हैं हंसुआ, कटार की तरह !

या वो, जो दांतों में पल्लू दबाये
भागती-दौड़ती रहतीं
कुलीनता की सीमाओं के भीतर
जिम्मेदारियों की पोटली कांख में दबाये
जिनके पावों के पाजेब की रुनझुन भी
दीवारों के पार नहीं जा पातीं !

जिनके साँसों का हर तार गाता है
एक ही गीत—
“हम कुलीन बहुओं को दीवारों में घुटना है
अच्छी छोटी जात की बहुएं
जिन्हें खुले आसमानों में हँसना है !
हर बहुओं का बसेरा तो नीच कुल ही होना था
कुलीनों के घर में तो सिर्फ बेटों को रहना था !


Monday 22 January 2018

कमाल हैं लेखक और कमाल लेखकों की दुनिया




मुंबई लौटते ही हमारे बेहद ऊर्जावान एवं युवा मित्र की सद्यःप्रकाशित किताब ‘लेखकों की दुनिया’ खुले लिफाफे के अन्दर बाहर आने के लिए कुलबुलाती हुई मिली. इसके कवर को इतनी बार इसके अन्दर के गद्यांशों के साथ, इसके लेखक के पोस्टों के माध्यम से, देख-पढ़ चुकी हूँ कि यह किताब बिलकुल भी नई नहीं लगी. लगा इसे कब से थोड़ा-थोड़ा पढ़ती आ रही हूँ.
सबसे पहले इस हस्ताक्षरित प्रति को भेजने के लिए Suraj Prakash जी को सादर धन्यवाद !!!
अब आते हैं किताब पर... किताब अपने आप में ह्यूमर और रोचकता का समन्दर है. इसे कहीं से भी पढ़ना शुरू किया जाय उतनी ही प्रवाहमय लगेगी. ऐसी कितनी ही जानकारी जिसे जानने के लिए हमें अपने चश्मों के नंबर बढ़ाने पड़ सकते थे, कुछ पन्नों में समेट हमारी ऊँगलियों के पोरों तक ला छोड़ा. हमारी सुंदर आँखों की तरफ से पुनः आभार !!! JJ
अभी कुछ पेज ही पढ़ पाई हूँ. इतना ही पढ़ते-पढ़ते सोचा अपनी कोमल भावनाओं को आप सब तक प्रेषित करती चलूँ. हम सच्ची कहते हैं आज ट्रूमैन कपोते होते तो हम उनकी कोई कहनी या उपन्यास नहीं पढ़ते, भई भला ये क्या बात हुई, जनाब अपने वहम के चक्कर में हम 3-13 नंबर वालों का अस्तित्व ही नकारे जाते हैं. लेकिन अब पढ़ेंगे, जरुरी हो गया है उन्हें समझने के लिए.
पाठक कई बार लिखे हुए को खुद से जोड़कर देखने-सोचने लगता है. आचार्य शुक्ल ने रचना में लोक का होना अनिवार्य तत्व माना है. ऐसे में किसी रचना को हम यदि खुद से जुड़ा हुआ पाते हैं या किसी पात्र के स्थान के पर स्वयं को रखकर देखने लगते हैं तो वही उस रचना की उपलब्धि मानी जाती है. आचार्य शुक्ल ने जिस व्यक्ति-वैचित्र्यवाद की चर्चा की रचना के साधारणीकरण के सम्बन्ध में की है, उन सभी अनुभूतियों का दर्शन सहज ही इसमें हो जाता है.
अब देखिये, कवि दिविक रमेश और डी. एच. लॉरेंस की कल्पना शक्ति को तूत के पेड़ पर चढ़ने के बाद पंख लग जाते थे. लेकिन हम सोचते हैं अगर हम उनकी जगह शहतूत की डालियों पर चढ़े होते तो हमारा तो सारा फोकस डालियों पर लगी लाल-काली खट्टी-मिट्ठी शहतूतों पर ही होता. हमारा तो सारा सोच-सोचाया ख्याल या आईडिया हवा हो जाता. संक्षेप में....
कमाल हैं लेखक और कमाल लेखकों की दुनिया !!!
चलते-चलते यह भी बता ही देती हूँ.... यह किताब तो निस्संदेह रोचक है किन्तु इस किताब का मुझ तक पहुंचना भी कम रोचक नहीं.
जय राम जी की !